भारत में शारदेय नवरात्रि: बुंदेलखंड के सागर में "कांधे वाली माता" की अनूठी परंपरा,जाने परंपरा, स्थापना,मूर्ति का निर्माण
भारत में शारदेय नवरात्रि पर्व को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दौरान, हर शहर और गांव में मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र का सागर भी इससे अछूता नहीं है, जहां नवरात्रि के दौरान सैकड़ों पंडालों में माता की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। इनमें से कई पंडाल अपनी विशेषताओं के कारण आकर्षण का केंद्र बनते हैं। ऐसे ही पंडालों में से एक है "कांधे वाली माता", जो सागर के पुरव्याऊ टोरी पर स्थापित की जाती है। यह परंपरा पिछले 120 वर्षों से चली आ रही है, और हर नवरात्रि में इसे धूमधाम से मनाया जाता है।
120 वर्षों की अद्वितीय परंपरा
सागर के पुरव्याऊ टोरी में दुर्गोत्सव की शुरुआत 1905 में हुई थी। तब से यह परंपरा बिना किसी बदलाव के आज भी जारी है। खास बात यह है कि यहां माता दुर्गा की मूर्ति जैविक विधियों से बनाई जाती है, जैसे 120 साल पहले बनाई जाती थी। माता की मूर्ति हर साल एक जैसी होती है और इसका श्रृंगार सोने-चांदी के असली आभूषणों से किया जाता है। आर्टिफिशियल ज्वेलरी का कोई उपयोग नहीं किया जाता और हर साल नए आभूषण खरीदे जाते हैं।
मूर्ति विसर्जन की परंपरा भी अनूठी है। 100 साल पहले जैसे मां दुर्गा की शोभायात्रा कंधों पर उठाकर निकाली जाती थी, आज भी वही परंपरा कायम है। माता की पालकी को मशालों की रोशनी में भक्त कंधों पर उठाकर विसर्जन के लिए ले जाते हैं। इस शोभायात्रा के दौरान "चल माई, चल माई" के जयकारों के साथ पूरा शहर मां के दर्शन के लिए कतार में खड़ा हो जाता है।
दुर्गोत्सव की स्थापना
दुर्गोत्सव समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह ठाकुर, जो दिल्ली में एक फैक्ट्री संचालित करते हैं, हर साल नवरात्रि से पहले इस आयोजन की तैयारियों के लिए सागर आ जाते हैं। वे मूर्ति कला में निपुण हैं और खुद मां दुर्गा की प्रतिमा तैयार करते हैं। राजेंद्र सिंह बताते हैं कि उनके पूर्वज हीरा सिंह ठाकुर ने 1905 में इस परंपरा की शुरुआत की थी। हीरा सिंह ठाकुर स्वयं मूर्तिकार थे और उन्होंने नवरात्रि के अवसर पर मां दुर्गा की स्थापना का विचार किया। इसके लिए वे कई दिनों तक कोलकाता में रहे और वहां से लौटकर खुद मूर्ति बनाकर इस अनूठी परंपरा की नींव रखी।
जैविक विधियों से मूर्ति निर्माण
मां दुर्गा की प्रतिमा आज भी पूरी तरह जैविक विधियों से बनाई जाती है। मूर्ति के निर्माण में शुद्ध मिट्टी का उपयोग किया जाता है और सजावट में किसी भी तरह के केमिकल का प्रयोग नहीं किया जाता। मूर्ति को सजाने के लिए पानी वाले रंगों का उपयोग किया जाता है। महिषासुर मर्दिनी के रूप में माता की मूर्ति बनाई जाती है, जिसमें लक्ष्मी, सरस्वती, स्वामी कार्तिकेय और गणपति की प्रतिमाएं भी शामिल होती हैं। माता की यह प्रतिमा एक ही चौकी पर स्थापित की जाती है, क्योंकि माता की शोभायात्रा किसी वाहन से नहीं, बल्कि भक्तों के कंधों पर निकाली जाती है।
परंपरा का संरक्षण
मां दुर्गा की शोभायात्रा जितनी भव्य होती है, उतना ही मनमोहक उनका पंडाल सजाया जाता है। दशहरे के दिन जब माता की सवारी निकलती है, तो पूरा शहर उमड़ पड़ता है। 1905 में जब यह परंपरा शुरू हुई थी, तब बिजली का इंतजाम नहीं था, इसलिए मशालों की रोशनी में शोभायात्रा निकलती थी। आज भी मशालों की रोशनी के साथ माता की पालकी कंधों पर उठाई जाती है, और पूरा शहर "चल माई, चल माई" के नारों से गूंज उठता है।
निष्कर्ष
सागर के पुरव्याऊ टोरी में "कांधे वाली माता" की यह परंपरा न केवल नवरात्रि के धार्मिक महत्व को दर्शाती है, बल्कि यह हमें हमारी पुरानी परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहर की याद भी दिलाती है। 120 वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उतनी ही प्रासंगिक और जीवंत है, जितनी तब थी, जब इसकी शुरुआत हुई थी।